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दिसंबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
ग़ज़ल  मेरी रुसवाई के अफ़सानों को लेकर आ गया  मुझसे पहले ही यहाँ मेरा मुक़द्दर  आ गया  दिल में उट्ठा था के कोई प्यार से सहलाएगा  और सारे शह्र के हाथों में पत्थर आ गया  रात गहरी हो गई मैं अपने दुख़ गिनने लगा  देखता क्या हूँ के सूरज मेरे सर पर आ गया  बर्फ़ ने जब भी नदी में खो दिया अपना वजूद  हस्ती-ए-दरिया को गुम करने समंदर आ गया  मैं ही शह्रे-याद में इक शख्स था  मेहमाँनवाज़  जो भी ठुकराया था सबका मेरे दर पर आ गया  कश्ती-ए-ख़स्ता पे दिल की वो अभी डूबा ही था  पासबाने-अक्ल की सुनकर सतह पर आ गया     वो जो कहते थे के 'कुंदन' छोडिये दीवानगी  राह पे मैं उनके ज़ीनों से उतारकर आ गया  ***************************
ग़ज़ल  क़लम पे,शोर है के,आजकल पहरा नहीं है  मगर क्या बात है ,होता है जो दिखता नहीं है  हमारा क़त्ल करके खूँबहा भी ख़ूब देता है  हमारे शह्र का क़ातिल अभी  रुसवा नहीं है   गले में तौक़ ,पाँवों में बंधी ज़ंजीर है अब भी  अलग ये बात है ,मज़लूम कुछ कहता नहीं है  हमारा दर-ब-दर होना हमारी शान में शामिल  के छाँव में ठहरने को ये सर झुकता नहीं है   के ये तलवार और सर का पुराना है बहुत रिश्ता  चलन दारो-रसन का आजतक बदला नहीं है  अमीरे-शह्र से कह दो के वो जो राख पे ख़ुश है  भड़क उट्ठेगी चिंगारी   ये अंदाजा नहीं है  फ़क़ीराना सिफ़त है,बेनियाज़ाना तआल्लुक है  के 'कुंदन'दिल से तो मिलता है पर रुकता नहीं है  *************************
ग़ज़ल फिर अपनी ही शिकस्त से दो-चार हो गए  देखी जो बेबसी तेरी  लाचार हो गए उफ़ ये सिपाहे-ग़म के उमड़ते चले गए  लेने न पाए साँस के तैयार  हो गए  बस इक ज़रा दरार पड़ी उसके यक़ीं में  हम अपनी ही नज़रों में गुनाहगार हो गए  तुम थे न हमारे के हमारी न थी हयात  बस दो सवाल उम्र के आज़ार हो  गए  उस मोड़ पे तो तुमको उसे सौंपना ही था  दरिया के दरम्यान ही हम पार हो गए  रंग और नस्ल,ज़ात और मज़हब ,ज़रो-दस्तार  इक घर में आज कितने ही दीवार हो गए   सैय्याद के दाने की हवस तो न थी 'कुंदन' दिल तोड़ें क्यूँ किसी का गिरफ़्तार हो गए *******************  
ग़ज़ल  रूख़ मुहब्बत का  मोड़नेवाले  फिर मिले दिल को तोड़नेवाले  तेरी रंजिश है या है बेचैनी  ऐ ख़तों को  मरोड्नेवाले  कब तलक साथ निबाहेंगे भला  ये तकल्लुफ़ को ओढनेवाले  दे के जाते कोई भी गर्म लिबास  सर्द मौसम में छोड़नेवाले  फिर किसी ने दिखाया ख्वाबे-वफ़ा  हम थे दामन निचोड्नेवाले  हाथ नन्ही-सी याद ने पकड़ा  हम थे उस घर को छोड़नेवाले इसलिए मुन्तशिर रहे 'कुंदन' हम थे दुनिया को जोड़नेवाले  ********** 
ग़ज़ल  अयादत को वो आया है,नहीं ऐसा नहीं है  वो मेरे पास बैठा है,नहीं ऐसा नहीं है  उसे इक बेसबब की बेयक़ीनी है मेरे ऊपर  के उसने मुझको परखा है,नहीं ऐसा नहीं है  ज़हन उसका हमेशा वसवसों में महव रहता है मुझे भी कोई धड़काहै,नहीं ऐसा नहीं है  चला मैं छोड़कर अब आपकी महफ़िल के हंगामे  कोई हमराह चलता है ,नहीं ऐसा नहीं है    मैं जिसमें रात-दिन मसरूफ़ हूँ पूरी सदाक़त से  यही क्या मेरी दुनिया है,नहीं ऐसा नहीं  है उसे कुछ कहना है जिसके लिए बेचैन है हरदम  हमेशा चुप वो रहता है,नहीं ऐसा नहीं है  सुना है खा के ठोकर लोग दुनिया में संभलते हैं  इसे 'कुंदन' ने समझा है,नहीं ऐसा नहीं है  **************