ग़ज़ल मेरी रुसवाई के अफ़सानों को लेकर आ गया मुझसे पहले ही यहाँ मेरा मुक़द्दर आ गया दिल में उट्ठा था के कोई प्यार से सहलाएगा और सारे शह्र के हाथों में पत्थर आ गया रात गहरी हो गई मैं अपने दुख़ गिनने लगा देखता क्या हूँ के सूरज मेरे सर पर आ गया बर्फ़ ने जब भी नदी में खो दिया अपना वजूद हस्ती-ए-दरिया को गुम करने समंदर आ गया मैं ही शह्रे-याद में इक शख्स था मेहमाँनवाज़ जो भी ठुकराया था सबका मेरे दर पर आ गया कश्ती-ए-ख़स्ता पे दिल की वो अभी डूबा ही था पासबाने-अक्ल की सुनकर सतह पर आ गया वो जो कहते थे के 'कुंदन' छोडिये दीवानगी राह पे मैं उनके ज़ीनों से उतारकर आ गया ***************************
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'