ग़ज़ल जफ़ा भी मैंने न की ,वो भी बेवफ़ा न रहा हर एक रोज़ मिले, फिर भी राब्ता न रहा उसे भी मुझसे बिछड़ने का ग़म ज़रा न हुआ मुझे भी उसकी जफ़ाओं का आसरा न रहा मैं अपने ख़्वाब की चादर में इस क़दर लिपटा था मुन्तज़िर कोई ,एहसास ये ज़रा न रहा ख़ुशआमदीद क़लम जज़्बों की न कर पाया पलक भी चुभने लगी,अबके रतजगा न रहा दयारे-ज़ात में अपना नफ़ी मैं ख़ुद ही रहा ये और बात बज़ाहिर कभी बुरा न रहा हज़ार जिस्म बदल के वो मुझसे लिपटा था हवा में ,धूप में ,ख़ुशबू में ,फ़ासला न रहा न जाने क्यूं ही अचानक हुआ है ख़ुश'कुंदन' रहा सहा जो था दुश्मन से भी गिला न रहा *************************
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'