तुम्हें जब भी भुलाऊँगा तुम्हें जब भी भुलाऊँगा मुझे तुम याद आओगे तुम्हें चाहा था मैंने इस हुदूदे-जिस्म से बाहर तुम्हें चाहा था मैंने आस्माँ को बाँहों में भरकर तुम्हें क्यूँ चाहा था इसका न ख़ुद भी इल्म है मुझको के चाहत नाम है जिसका है बेचेहरा कोई पैकर हदें जब तोड़ पाऊँगा मुझे तुम याद आओगे तुम्हें जब भी भुलाऊँगा मुझे तुम याद आओगे ख़िज़ाँ की बरहना शाख़ें ,अकेली जागती रातें हवा की साँय साँय जैसे ख़ुद से करते हों बातें खंडर में याद के बेचैन सी तनहा चहलक़दमी तुम्हारी इक ज़रा लग्ज़िश की ये भरपूर सौग़ातें मैं इनका लुत्फ़ उठाऊँगा मुझे तुम याद आओगे तुम्हें जब भी भुलाऊँगा मुझे तुम याद आओगे ये सच है एक पल सोचा के तुमको भूल जाऊँगा उजारूँगा शह्र इक, इक नई बस्ती बसाऊँगा मगर जो चाँदनी रातों में तेरी खुशबुएँ शामिल भला दिल के हरन को किस क़दर मैं रोक पाऊँगा मैं दिल के नाज़ उठाऊँगा मुझे तुम याद आओगे तुम्हें जब भी भुलाऊँगा मुझे तुम याद आओगे ************************
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'