ग़ज़ल यारब मेरी ग़ज़ल को कुछ इतना ही दिलफ़रेब कर बज़्मे-सुख़न में शायरी ख़ुद आफ़रीन कह उठे कुछ मेरे शौक़े-दीद में ऐसा ही हुस्न कर अता तुझसे नज़र मिला ही लूं पर्दानशीन कह उठे अपना यक़ीन था फ़क़त वहमो-गुमाँ की इन्तहा हैरत है हम मकान को कैसे मकीन कह उठे तेरे क़दीम ज़ख़्म को यादों से यूँ रखा है तर सुनकर पुरानी नज़्म वो ताज़ातरीन कह उठे महफ़िल का शोर अब तलक कानों में क्यूँ है गूँजता होकर के हम जहान से गोशानशीन कह उठे तेरा ख़याल ,तेरा ग़म ,मेरी नज़र ,मेरा जुनूँ मिल जो गए तो शाम को बरबस हसीन कह उठे 'कुंदन' क़बूल कर लिया अपने ज़हन को पस्त जब बज़्मे-जहाँ में सब-के-सब हमको ज़हीन कह उठे *************************
यह ब्लॉग बस ज़हन में जो आ जाए उसे निकाल बाहर करने के लिए है .कोई 'गंभीर विमर्श ','सार्थक बहस 'के लिए नहीं क्योंकि 'हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन ..'