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मई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
मनोज कुमार झा की तीन कवितायें  प्रतीक्षा  वसंत के मुंह से तू ही ने तो कहा था  हम साथ-साथ पार करेंगे हर जंगल  मैं अब भी खड़ा हूँ वहीं पीपल के नीचे  जहां कोयल के कंठ में कांपता है पत्तों का पानी  अनुपस्थिति तुम नहीं तो अब यहाँ मेरे हाथ नहीं हैं  एक जोड़े दस्ताने हैं  पैर भी नहीं  एक जोड़ी जूते की  देह भी नहीं  मात्र मांस का एक बिजूका जिसमें रक्त और हवाएं घूम रही हैं  निर्णय  स्वंय ही चुनने प्रश्न  और उत्तरों को थाहते धंसते चले जाना स्वप्नों के अथाह में . कहीं कोई यक्ष नहीं  कि सौंपकर यात्रा की धुल उतर जाएँ प्यास की सीढ़ियाँ . समय के विशाल कपाट पर अँगुलियों की खटखट  लौट-लौट गूंजती है अपने ही कानों   में ये घायल अंगुलियाँ अंतिम सहयात्री शरशैय्या -सी. जितना भींग सका पानी में  बदन में जितना घुला शहद  जितना नसीब हुआ नमक  कौन कहेगा--कम है या ज्यादा  खुद ही तौलना  तौलते जाना  ज़रा सा भी अवकाश नहीं रफ वर्क  ...
नितांत अजनबी होने के बावजूद  अब,जबकि मुझे यहाँ से जाने का  सुल्तानी फ़रमान मिल चुका है  मैं जल्दी ही चला जाऊंगा यह शहर छोड़कर  अपने असबाब मैं समेटता जाऊंगा  और मेरी कोशिश रहेगी कि मेरा कुछ भी  इस कमरे में छूट नहीं जाय  फिर भी ऐसा कुछ-न-कुछ या शायद बहुत कुछ  बचा रह जायगा जो कम नहीं होगा  मेरी हस्बमामूल हस्ती का एहसास दिलाने के लिए  मसलन  आलमारी के एक कोने में फँसी  बीसों वर्ष पुरानी डायरी के  बिखरे पन्नों में दर्ज़ होगा - मेरी जद्दो-जहद का लेखा -जोखा  दूसरे कोने में कागज़ के फटे टुकड़े पर लिखा मिले  किसी ग़ज़ल का प्यारा मिसरा  रद्दी के ढेर में शायद आपको मिले  तीसों वर्ष पूर्व मेरे नाम भेजे गए कच्चे और अधूरे  प्रेम पत्र   के चंद अलफ़ाज़ कमरे के चप्पे-चप्पे पर दर्ज़ होगा  मेरे चलने,बोलने,हंसने और बतियाने का अंदाज़  जंगले की खिड़की पर टंगी होंगी मेरी अधूरी हसरतें  कभी तनहाई में सुनाई पड़े मेरे आहत सपनों की कराह मेरे द्वारा रात-र...
गगन   बेलि    तुम कैसे जानोगे  कि जो शख्श  अतिशय संजीदगी के साथ तुम्हारे समक्ष  फ़ाइल के पन्ने पलट रहा होता है  ठीक उसी समय उसका मन  बहुत दूर अपने गाँव के सिवाने पर अवस्थित  विशाल पीपल वृक्ष के नीचे कबड्डी खेल में  मगन हो रहा होता है    कि जब वह दफ्तर की गुत्थियों को सुलझाता हुआ परिवेश की नीरवता के साथ स्वयं को तदाकार कर रहा होता है तब बरसों पूर्व छूट गया उसका शोख बालपन  इसके साथ छेड़खानी कर रहा होता है    कि जब  उद्विग्न    भाव मगर चुपचाप  कोई बॉस की झिड़कियां सुन रहा होता है  उस समय अपने बालपन की वीथियों में  मटर की फलियाँ या झड़बेरी के  कच्चे पके...
ग़ज़ल  आजकल तो मैं बज़ाहिर  भी  बड़ा  तनहा  रहा  और ज़हन में बस गुज़श्ता याद का मजमा रहा ज़िंदगी ने कैसे मंज़र मुझको दिखलाए  मगर  कोई पूछेगा तो कह दूंगा के  सब अच्छा  रहा   मैं कोई दरिया न था जाकर समंदर में  मिलूँ  जाने कैसी आस लेकर उससे मैं मिलता रहा  एक कोशिश थी छुपा लूं ख़ुद को थोड़ा ही मगर  एहतराम उसकी जो रंजिश का किया ,खुलता रहा  सच  कहूं तो सच का लगता ही नहीं कोई वजूद  इसलिए ख़ामोश होकर उसके सच सुनता रहा   याद का भी जिस्म है,ख़्वाबों की इक ख़ुशबू भी है  जो मेरी आँखों से ओझल थे उन्हें छूता  रहा   ज़िंदगी का ये सफ़र 'कुंदन' कटा इस सोच पर  शायद ऐसा हो ,इसी एहसास पे चलता रहा  **************************
ग़ज़ल  इसी दुनिया में,सुना है के रहा करते थे  कैसे थे लोग , बिलाशर्त  वफ़ा करते थे  मिट गया तेरा यक़ीं,अपनी ज़ुबां बंद हुई  वरना हम ही थे हर इक बात कहा करते थे  इस बड़ी बात पे मतलब है क्या ख़मोशी का  ज़रा-सी बात पे क्या झगड़े हुआ करते थे  बस एक लम्हे के पत्थर ने है रोका वरना  दरियाए-वक़्त के हमराह  बहा   करते थे  आज तो दिल के निशाने पे था उनका हर तीर  वार तो करते थे,कुछ तीर ख़ता करते थे  क्या वहाँ अब भी हैं उन क़दमों की आहट के निशाँ  क़िस्से जिस मोड़ की ख़ुशबू के सुना करते थे   नाउमीदी का वही दौर है क्या फिर "कुंदन" जब न करते थे दवा और न दुआ करते थे    ***************************     
अब्र का एक मुख़्तसर टुकड़ा आज मैं धूप में चला हूँ बहुत राह में कोई गुलमोहर भी न था  धूप में इक ग़ज़ब की हिद्दत थी और बहुत दूर आसमानों  पर अब्र का एक मुख़्तसर टुकड़ा कुछ तसल्ली -सी दे रहा था   यूं  जैसे के मेरी छोटी-सी बेटी  मुझसे कहती है राक्षस जो कभी  मुझपे हमला करे तो अपनी छड़ी से वो ऐसा करेगी जादू कुछ  (क्योंकि वो तो परी है नन्हीं इक) जिससे तोते  की जाँ निकल जाए  जिसमें बसती है  राक्षस की जाँ  और ऐसा वो कहके मुझसे तुरत  प्यार से यूं लिपट जो जाती है  जैसे के मेरी मुख़्तसर दुनिया  सारे रंजो-अलम से खाली है  आज लौटा हूँ जब थका-हारा ज़हन में मेरे छोटा-सा टुकड़ा हाँ,वो छोटा-सा टुकड़ा बादल का  साफ़ वो आ रहा है कितना नज़र  और जिस पर है नक्श नन्हीं परी  ************************    
ग़ज़ल मीठे पल थे ,तल्ख़ थे लम्हे,कितना क्या कुछ याद रहे  अपना उजड़ना ही अच्छा है ,अच्छा तुम आबाद रहे हर लम्हे की शिरयानों में बहती थी बस बेचैनी  इसका ही तो रद्दे-अमल था , हर लम्हा हम शाद रहे कोयल कूकी ,तितली लहकी ,गुलमोहर के बहके फूल  बात है क्या फ़ितरत के लब पर एक-न-इक फ़रियाद रहे हमने बदन के चारों जानिब दाम-सा इक महसूस किया  गरचे नज़र तो आए न हमको ,वो पक्के सय्याद रहे तुमको समझ में आये न आये हमको बस कह देना है शेर कहें, तशरीह की 'कुंदन' हमपे क्यूं बेदाद रहे ***********************
ये आज का सफ़र तो ... शायद सफ़र की शाम में उतरेगी एक नज़्म तनहा सफ़र में जैसे कोई राह-रौ मिले कुछ बातें जो दिल में रहीं कहीं भी न कह सका उन लफ़्ज़ को तो शर्फे-समाअत ज़रा मिले इस आज के सफ़र की तो हर बात है मालूम क्या इब्तदा थी और कहाँ ख्त्मेसफ़र है हाँ ,लग रहे हैं पेड़ ये , ये खेत ,ये राहें कुछ अजनबी -सी फिर भी ये अनजान तो नहीं बेवजह इन्तशार के सामान तो नहीं लेकिन इसी सफ़र के जो अन्दर सफ़र है इक चलना है जिसपे इस सफ़र के बाद भी मुझको वो किस क़दर अनजान है,कितना वो ग़ैर है जिसमें हरेक लम्हे के अन्दर हैं कितने राज़ जिसमें न रहगुज़ार का कोई सिरा मिले जिसमें न मंज़िलों का कोई भी पता चले जिसमें न कोई रख्तेसफ़र और न हमसफ़र सामानेसफ़र जिसमें तो लाग़र बदन ही है हाँ,वो बदन के जिसमें हैं बेचैनियाँ भरी लम्हा वो होगा सोचता हूँ किस क़दर मुहीब कितनी कठिन-सी होगी वो जर्राहते -लम्हा लाग़र बदन से जबके जुदा होगा इन्तशार और इक सफ़र जो होगा कभी जिस्म के सिवा बेचैनियों को साथ लिए चलना ही होगा जिसमें न होगा मंज़िलों का कोई भी सुराग जिसमें वजूदे -वक़्त भी मिट जाएगा आखिर शायद वही सफ़र तो है ...
ग़ज़ल  होना नहीं था  जिसको  वही आज हो गया  दुनिया में नुमायाँ था ,कमरे  में खो  गया   जो  शोर  मचाता  हुआ एहसास था दिल में  बच्चे की तरह थक के वो बिस्तर पे सो गया  मैं  वक़्त  के  चटान  पे यूँ  ख़ुश्क   खड़ा  था बादल की तरह याद का लम्हा  भिगो  गया   चेहरे  पे उभरता  ही नहीं  कोई  ताआस्सुर ऐ कीमियागर ,मोम भी पत्थर-सा हो गया  एक सहमा-सा आंसू जो दरे-दिल पे खड़ा था  'कुंदन'  मेरे  तमाम  गुनाहों  को धो   गया  ********************************