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अप्रैल, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
ग़ज़ल  ये  आज  हो  गया है ज़रा रतजगा तो क्या  और इक तवील नींद का है आसरा तो क्या वो पल था  फ़ासलों पे  चढ़े क़ुर्बतों   के  रंग  अब दूरियों ने याद को धुँधला दिया तो क्या  अब  अपने  इस बिखराव पे  रोऊँ  के  हँसूँ  मैं  अपनी हिफ़ाज़तों में वो यकजा हुआ तो  क्या  मिलने को उसको  वैसे  हरेक शै  है  मयस्सर  जो चाहिए था उसके सिवा सब मिला तो क्या   वो  मुतमइन  कभी  न  था  बिखराव से   मेरे  ये आज उसने कह ही दिया बरमला तो  क्या  वो  तामियाद   साँस  के  ज़िन्दाँ   में  क़ैद  है  चोटों के तसलसुल से ज़रा थक गया तो क्या  'कुंदन'  कहीं  पे  मुन्तज़िर   होगी  बहार  भी  ताउम्र  गरचे  बाग़  ये  उजड़ा  रहा  तो  क्या  **************************** ...
(1981 की एक नज़्म ) तनाबें* तोड़ दो ... मैं मुतरिब (1)नहीं हूँ फ़क़त मुफ़लिसों का  मैं शायर हूँ इन फ़लसफ़ों में न  बाँधो  मैं फ़ितरत के हर रंग का हूँ मुसव्विर(2) न मुझको फ़क़त जंग की सुर्ख़ियाँ  दो  क़लम है मेरा मुन्तज़िर (3)  वुसअतओं (4)का  धनक (5 ) के हसीं  सात  रंगों  के  आगे  हो बेशक हक़ायक़ के इसमें मनाज़िर (6) दरीचे तख़य्युल (7) के भी ये उठा  दे  अगर  बेकसों  का  अलमदार  बनकर  मेरे नग़में ज़ुल्मो-सितम को मिटा  दें  तो महलों में सादिक़(8)कोई जज़्बा पनपे  उसे भी ज़माने को बढ़कर बता दें  सुख़न(9)पे नहीं सिर्फ़ इन्साँ का हक़ है  शजर(1 0 )और पत्तों की भी गुफ़्तगू है  हवा बात करती है,गाते हैं बादल  लरज़ते-थिरकते ये जामो-सुबू  हैं  बिलकते हुए तिफ़्ल(1 1 ) हैं मुफ़लिसों के  तो गुल(12)हैं लताफ़त(13)के पाले हुए भी  है लफ़्ज़ों की ज़द में अगर बाग़े-जन्नत  तो इन्साँ हैं वाँ(14)...
ग़ज़ल  चारदीवारी के अन्दर भी फ़र्क़ बहुत ही आया है  इक कमरे में मैं रहता हूँ,इक में मेरा साया है  आज अकेला  बैठा हूँ मैं   अपने  वीराँ कमरे में  धुँधली-धुँधली यादों ने बस अपना साथ निभाया है  मिलने-जुलने का हंगामा,प्यार-मुहब्बत की बातें  माना तुम मसरूफ़ हो लेकिन अपना ये सरमाया है  वाक़िफ़ है बाज़ार के वो आदाब से कुछ इतना ज़्यादा  दूकाँ-  दूकाँ खोटा सिक्का उसने ख़ूब  भुनाया  है  हम जैसों पे कौन सितम ढाएगा,कितना ढाएगा  किश्तों में जब हमने अपना ख़ुद ही लहू बहाया है   बनते-बनते बात बिगड़ने की जैसे इक रस्म है ये रस्मों के पाबन्द रहे हैं,ख़ुद ये रोग लगाया  है  हमने भी 'कुंदन'पहाड़ से दिन को काटा है पल-पल  उसने भी कुछ आँसू देकर अपना फ़र्ज़ निभाया है  **************************
ग़ज़ल   वैसे आज़ाद था पर पाँव में ज़ंजीर भी थी   एक पोशीदा कहानी पसे-तहरीर भी थी इस क़दर मैंने हुकूमत की दिलों पर उनके   चीज़ उनकी थी यक़ीनन , मेरी जागीर भी थी शाम तन्हाई की अल्बम में तुझे पा न सका   मेज़ पे गरचे तेरी मोहिनी तस्वीर भी थी वो ज़माने की दलीलों को समझता कैसे   दिल की इक ग़ौर से सोची हुई तक़रीर भी थी तेरी दुनिया में तो फ़ुर्सत न मिली इक दम भी   ख़्वाब के बाद फिर इक कोशिशे-ताबीर भी थी गरचे चेहरे पे तआस्सुर था सुकूँ का क़ायम   एक बेचैनी हमावक़्त बग़लगीर भी थी वैसे सब मुझसे मुहब्बत से मिले थे ' कुंदन ' साथ मेरे मेरी बिगड़ी हुई तक़दीर भी थी **********************
ग़ज़ल  अपनी गवाही ख़ुद ही देना ,अपना हाल सुनाना क्या  जो हैं अपनी राय पे क़ायम ऐसों को समझाना  क्या  छोटी-छोटी ख़्वाहिश लेकर यूँ ख़ुद को भरमाना क्या  हम जैसों का इस दुनिया में जीना क्या ,मर जाना क्या  दिल के सहरा और लम्हों के कोहे-गिराँ को देखे कौन  मजनूँ और फ़रहाद के आगे अपना भी अफ़साना क्या    रात सिसकती रहती है  जब  बिस्तर के इक कोने पर  दिन का महफ़िल-महफ़िल जाकर हँसना और हँसाना क्या    जज़्बों की तारीख़ यही है दरिया ने रुख़ बदला है  लेकिन प्यासी रूह का क़िस्सा बार-बार दुहराना क्या  सब अपनी दूकान सजाए बैठे हैं इस मेले में  अपनी जिन्स का भाव बताने में ऐसा शरमाना क्या  दर्द को देकर ये पैराहन , ग़म को देकर एक रिदा  'कुंदन' इन नग़मों की तह में अपना ज़ख्म छुपाना क्या  ***************************
ग़ज़ल  आज लगता है के शायद हो कोई शोख़ ग़ज़ल फिर  से  चल याद की पुरपेच- सी गलियों में टहल  मैं न कहता था के यूँ अपनी तवक़्क़ो न बढ़ा  तेरे दिल में है ख़ला, उसकी जबीं पर है  बल  ख़्वाब भी उसकी रफ़ाक़त के सब हुए ऒझल  चल ,किसी तौर पे खोती हुई यादों  से बहल  तू था कमफ़हम,उसे फ़हम का दावा था बहुत  और अब अक़्ल के बख्शे हुए ज़ख्मों पे मचल  राह तेरी भले कोई न तुझे तकता मिले   जाँकनी इतनी है 'कुंदन' के यहाँ से तो निकल  ********************
ग़ज़ल हरेक शख्श को बस यही बेकली है  के बेहतर सी कोई जगह पे वो जाए  ज़रा-सा वो खुद से तो बाहर निकल ले  तो शायद ज़माने को ख़ुद में वो पाए  यही सोचता हूँ मैं अक्सर के बादल फ़क़त तर्जुमाँ है फ़ज़ा की तपिश का  रगों में जो मेरी अजब-सी है हिद्दत  कोई उससे काग़ज़ को नम कर तो जाए  हर एक लम्हा यूँ बदगुमाँ है वो मुझसे  के लम्हों के पाँवों में पत्थर बंधे हों  इधर ठहरे लम्हों को बस गुद्गुदाके  ये सोचा है उसको हँसी आ तो जाए  बरतता है शेरों को क्या ख़ुशदिली से वो नज़्मों से है किस क़दर प्यार करता  लिपट जाए माँ से कोई तिफ़्ल जैसे के मासूम सोते हुए मुस्कराए  कभी तो लगा है मुझे भी ये 'कुंदन' के मैं जी रहा हूँ मगर ज़िंदगी ख़ुद  समझ ये न पायी है अबतक के मुझसे रखे फ़ासला के गले से लगाए  *****************************************
ग़ज़ल  जफ़ा भी मैंने न की ,वो भी बेवफ़ा न रहा  हर एक रोज़ मिले, फिर भी राब्ता न रहा  उसे भी मुझसे बिछड़ने का ग़म ज़रा न हुआ  मुझे भी उसकी जफ़ाओं का आसरा न रहा  मैं अपने ख़्वाब की चादर में इस क़दर लिपटा  था मुन्तज़िर कोई ,एहसास ये ज़रा न  रहा  ख़ुशआमदीद क़लम जज़्बों की न कर पाया  पलक भी चुभने लगी,अबके रतजगा न रहा  दयारे-ज़ात में अपना नफ़ी मैं ख़ुद ही रहा  ये और बात बज़ाहिर कभी बुरा न  रहा  हज़ार जिस्म बदल के वो मुझसे लिपटा था  हवा में ,धूप में ,ख़ुशबू में ,फ़ासला न रहा  न जाने क्यूं ही अचानक हुआ है ख़ुश'कुंदन' रहा सहा जो था दुश्मन से भी गिला न रहा    *************************
मश्क़े-सुख़न की ख़िज़ाँ में अचानक न जाने ये कैसी अजब बेक़रारी  के मश्क़े-सुख़न की ख़िज़ाँ में अचानक  सूखे शजर पे  खिल जाए कोई अल्फ़ाज़ का गुल  के जिसकी दिलावेज़ ख़ुशबू का वो तीर  हर दिल में उतरे  मगर ज़िंदा रहने की है जो मशक़्क़त  के क़ाबिज़ है हर एक लम्हे पे ऐसी  हर एक लम्हा बेचैन इस क़ैद में है  बहुत मुन्तज़िर है  के ज़िन्दां के ये आहनी दर  तो वा हों  वो बाहर तो आये  हवाओं का आज़ाद-सा लम्स उसके  गालों को छू ले  ठहर के वो एहसास का जायज़ा ले  कोई शेर कह दे  मगर दौरे-मेह्नत-ओ-सरमाया आख़िर  कहाँ बख्श दे कोई आज़ाद लम्हा  क़लम जिन्स है वो  के बाज़ार के भाव बिकता नहीं है  तो ऐसा करें हम  के बेबस फ़ज़ाओं की इस दास्ताँ को  दिलों में सिमटती हुई कहकशाँ को  ज़िन्दां के इन वीराँ दीवारो-दर पे  यहीं नक़्श कर दें  अगर ख़्वाब की हो न ताबीर मुमकिन  यही हम समझ लें  के ख़्वाबों को देखेंगे...