सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जुलाई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
रंगे-तिलिस्म  ज़रा दस्तार उछालो  ज़रा-सा तख़्त उलटो जो के सदियों से है मज़लूम उस रिआया को  चंद लम्हों का वहम  हो के  बेड़ियाँ टूटीं  जो उसके पानी को  रोका गया था  बह निकला  न जाने कब से थी महरूम  निवालों से जो  सारे गल्लों  के क़ुफ्ल टूट गए  चंद लम्हों का वहम हो उसको  लेकिन उछला है क्या दस्तार कभी  क्या हमेशा के लिए  तख़्त को उलटा है गया  तख्तो-दस्तार के हज़ारों रंग  और ये रंग बदलनेवाले काश ,मज़लूम रिआया  ये समझ ले इक दिन   और उस रंग पे क़ब्ज़ा कर ले  जिसमें के जज़्ब है सदियों का ग़ुरूर काश दस्तार उछाले ,न तख़्त को उलटे  तोड़ डाले वही तिलिस्मी रंग  जो के पेवस्त है  हर हुक्मराँ की आँखों में  **********************