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एक 107 साल की की मज़दूर महिला मस्तानम्मा की कहानी जो एक महान शेफ़ थी

मस्तनम्मा एक मज़दूर महिला जो दुनिया की विलक्षण शेफ़ थी और उसके जीवन के 105 वें वर्ष में दुनिया को यह पता चला. नीचे के लिंक पर कल्चर बुकलेट के अंग्रेज़ी वाले सेक्शन में मेरा लिखा लेख पढ़ सकते हैं   लिंक --   https://culturebooklet.com/Blog/STRICKEN-BY-AGE-YET-FILLED-WITH-CREATIVITY-#disqus_thread

मैं और गद्य लेखन

आज से सोचा वो करूँ जो पिछले कई दशकों से सोचता आया कि करूँ लेकिन कर नहीं पाया. यानी कि कुछ गद्य लेखन यानी कहानी और उपन्यास को अपने अंजाम तक पहुँचाना. बक़ौल साहिर लुधियानवी अंजाम तक पहुँचा नहीं पानेवाले उन अफ़सानों को ‘ख़ूबसूरत मोड़’ देकर भी छोड़ नहीं पाया या शरतचन्द्र के पिता मोतीलाल की तरह कोई भी रचनात्मक कार्य शुरू करने के बाद बीच में ही छोड़ दिया. हालाँकि मैं उन नाविकों की क़द्र करता हूँ जो बीच दरिया में ही कश्ती डुबोने की जुर्रत करते आए हैं. फिर भी शर्मन-लिहाजन लगता है जीवन भर की इसकाहिली के इतिहास पर एकाध नॉवेल और कहानी-संग्रह पूराकर एक सवालिया निशान छोड़ जाऊँ. अब अपने पक्ष में कोई तर्क पेश करना या कई तरह के बहाने पेश करना भी थोड़ा ठीक नहीं लगता. वैसे चाहूँ तो बहुत सारी शहादतें पेश कर सकता हूँ अपनी बेगुनाही को साबित करने के लिए जैसे कि वक़्त की कमी, ज़िन्दगी भर अपना और अपनों का पेट पालने के लिए किसी न किसी काम में लगा रहना जिसका अदब और सकाफ़त से कोसों दूर का वास्ता नहीं था, फिर जिस्मानी तौर पर थक जाना या माहौल, प्रोज राइटिंग के लिए सही माहौल नहीं मिल पाना, कई वजूहात हैं जो अदब और साहित्य को

मनोज कुमार झा की तीन कविताएँ

मनोज कुमार झा की तीन कविताएँ     उलटे     मैं सुअर की तरह मरा   इस लोकतंत्र में     कीचड़ में लथपथ     मेरे बच्चों को कोई मुआवजा नहीं मिला   उलटे उन्हें यह सिद्ध करना पड़ रहा     कि पिता सुअर की तरह नहीं मरे।                     ***     सूखा   जीवन ऐसे उठा जैसे उठता है झाग का पहाड़ पूरा समेटूँ तो भी एक पेड़ हरियाली का सामान नहीं जिन वृक्षों ने भोर दिया , साँझ दिया , दुपहरी को ओट दिया उसे भी नहीं दे सकूँ चार टहनी जल तो बेहतर है मिट जाना मगर मिटना भी हवाओं की सन्धियों के हवाले मैं एक सरकार चुन नहीं पाता तुम मृत्यु चुनने की बात करते हो !               ***     जटिल बना तो बना मनुष्य   मेरी जाति जानकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा तुम और मेरी जाति के लोग एक सरल रेखा खींचोगे और चीख़ोगे कि उसी पार रहो , उसी पार मगर इन कँटीली झाड़ियों का क्या करोगे जो किसी भी सरल रेखा को लाँघ जाती हैं , जिनकी जड़ें अज्ञात मुझे भी हालाँकि मेरी ही लालसाओं से ये जल खींचती हैं   एक धर्म को तुम मेरा कहोगे और भ्रम में पड़ोगे क

एक ज़माना हुआ...

अपने ब्लॉग पर आए हुए एक ज़माना हुआ. ऐसा लगा, जैसे आप अपनी किसी अज़ीज़ चीज़ को कहीं रख कर भूल जाते हों, जैसे कोई तस्वीर, कोई फूल, किसी काग़ज़ के एक छोटे से पुर्ज़े पर लिखी कोई इबारत या बाज़ दफ़ा तो अपनी शख्सियत ही.  लेकिन अब फिर से मैं ‘होता है शबो-रोज़ ...’ की दास्ताँ फिर से दर्ज़ करना चाह रहा हूँ. न सिर्फ़ अपनी बात बल्कि सारे ज़माने की बात. न सिर्फ़ अपना लिखा बल्कि और मुझसे कहीं बेहतर लोगों का भी लिखा, न सिर्फ़ एक मौज़ू बल्कि अनगिनत मौज़ूआत. क्योंकि शबो-रोज़ जो तमाशा मेरे आगे हो रहा है, वह हर किसी के साथ हो रहा है, इसलिए इस ब्लॉग को पढ़ने वाले मेरे दोस्तों थोड़ा सा और इंतज़ार करें और मैं आप सारे लोगों से आपकी दिलचस्पियों के साथ इस ब्लॉग के ज़रिए साझा करूँगा ज़माने के तजर्बात. आज के लिए बस थोड़ा इंतज़ार की दावत. संजय कुमार कुन्दन