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05.10.2002  की एक ग़ज़ल  हम भी काम के शख्श हैं इससे उसको कुछ इनकार भी है  लेकिन उसके दिल में छुपी इक नफ़रत की तलवार  भी है  सर को झुकाना शौक है उसका,सर को कटाना ज़िद अपनी दुनिया का बाज़ार है जिसमें तख़्त भी है और दार  भी है   स्याह  अन्धेरा  वक़्त है जिसमें जुगनू सा इक लम्हा  है   और वो  जुगनू  है कैसा  जो उड़ने को तैयार  भी  है  इक पागल को अपनाना  भी ख़ुद है इक दीवानापन  गर ये बात समझता है पर वो ख़ुद से लाचार भी है  कौन करेगा मेरी वकालत ,कौन मेरा शाहिद होगा  सब हैं अपनी दौड़ में शामिल वक़्त की इक रफ़्तार भी है  लहर-लहर उलझाव बहुत है,साहिल का भी वादा है  हर कोई इस बात को भूला कोई दरिया पार भी है  माफ़ करो, वो जाता है अब कैसे भी वो रह लेगा  शह्र में तेरे अब 'कुंदन' की क्या कोई दरकार भी है   *********************************
24.08.1992 की एक ग़ज़ल  हैं  चश्मे-पुरनम   हम-तुम  प्यासे हैं हरदम   हम-तुम  धूप  कड़ी   हालातों    की  मानिन्दे-शबनम   हम-तुम    दिल से ज़हन  तलक आये  मिलते हैं अब कम  हम-तुम    एक ही जज़्बा,एक ही लफ़्ज़   बोल उठे यकदम  हम-तुम  यादें कश्ती ,शब्  दरिया  डूबते हैं पैहम हम-तुम   कौन किसे समझाएगा  अबके हैं बरहम हम-तुम  "कुंदन" एक ही लम्हे में  कितने थे मौसम हम-तुम  *********************
जून 1998 के आख़िरी हफ़्ते मेरे दोस्त उदयकान्त पाठक की मौत एक बस हादसे में दिल्ली में हो गयी थी.वह पटना से दिल्ली शायद अपनी नागहाँ मौत से मिलने गया था .जब उसने पटना छोड़ा था ,मैंने उसके लिए एक नज़्म "तुम्हारे बाद" 11.01.1995 में लिखी थी .आज उसकी यादों को नज्र यह नज़्म:-- बाद जाने के तुम्हारे मुझे यही है लगा जैसे इस शह्र में तुम हो ,कहीं गए ही नहीं रात के पिछले पह्र तक थे साथ-साथ क़दम वो चल रहे हैं किसी मोड़ पर मुड़े ही नहीं नहीं,ज़रा भी मुझे ये नहीं लगा है अभी के ग़ैर शह्रों की जानिब तुम्हारा तन है रवां के मेरे दिल के शह्र की कोई हसीं धड़कन कहीं पे खो गयी वीरान करके मेरा जहां मगर मुझे ये लग रहा है के कुछ मेरा वजूद ख़ुद अपनी ज़ात के आईने में धुंधला -सा है वो अक्स जिसको मैं पहचानता था मुद्दत से वो मेरा चेहरा ही अब मुझसे नाशानासा है तुम्हारे बाद किसी शख्श से बातें जो कीं लगा,तुम्हारी ही आवाज़ मुँह से निकली थी तुम्हारे तजरबे बातों पे मेरे थे क़ाबिज़ तुम्हारी शख्शियत कुछ मुझसे हो के गुज़री थी कहीं ऐसा तो नहीं वक़्त ने की इक साज़िश ज़रा आहिस्ता ही मुझमें तुम्हें ही डाल दिया तिलिस
ग़ज़ल     हुआ कुछ यूं के अपने रंग से निकला अभी था  मुसव्विर को इसी इक बात का सदमा अभी था लगा ये धूप अपनी है तो ये साया भी है अपना  नज़र भरकर तुझे ऐ गुलमोहर देखा अभी था बड़ों की सारी फ़ितरत अपने अन्दर जज़्ब कर डाली  वो बच्चा शह्र की गलियों में तो निकला अभी था ज़रा-सा आँख का खुलना,ज़रा-सा ख्वाब का आलम  अभी वो ज़हन से उतरा जिसे सोचा अभी था निशाने तक उसे आते ज़माना लग गया लेकिन  ये लगता है कमाँ से तीर तो निकला अभी था वो कितनी बेख़ुदी में है ,अगरचे होश में भी है  वही है साहिबे-महफ़िल जो दीवाना अभी था झपकते ही पलक नज़रों का कैसा ये तगय्युर है  अभी सहरा हुआ'कुंदन' जो इक दरिया अभी था *********************
प्लेटफार्म   ( 21.03.1984)   आख़िरी ट्रेन जा चुकी है अब  फैलता जा रहा है सन्नाटा  प्लेटफारम की धुंधली रौनक़ में  चंद मुबहम से ख़ाके उभरे हैं  जैसे सदियों से बंद क़ब्रों से  अहदे-कुहना की बद्बुएं लेकर  लम्हे आसेब बन उभरते हों  फ़र्श पे सो रहे तमाम बदन  गठरियों में बदलते जाते हैं  न इनमें ख़म ,न ज़ाविये,न उभार  कोई चमक,न लताफ़त,न निखार  आख़िरी इक शिनाख्त है इनकी  गोश्त ज़िंदा हैं और गलीज़ हैं ये  खूब अर्जां हैं ,जिन्सी चीज़ हैं ये  फ़र्श पे जा-ब-जा हैं पीक के नक्श  बेख़बर उनपे सो रही है कोई  शायद पागल वो नीम-उरियां है    बेख़बर  ,   बेख़बर  ,वो बेऔसान  इतने जिस्मों के पेचो-ख़म से कोई  साफ़-सुथरा जवाँ मरद गुज़रा और ज़रा दूर पर अँधेरे में  एक तनहा,अन्धेरा कोना है  अब वो दोनों उधर ही जाते हैं  प्लेटफारम की धुंधली रौनक़ से  मिट गए अब वो ख़ाका-ए-मुबहम           दरम्याँ इन गलीज़  जिस्मों के  सो रहे इक सियाह कुत्ते ने  बहुत हल्की -सी एक करवट ली  और फिर सट के एक इन्सां से  सो गया और बेख़बर होकर  ******************
22.11.1985 की एक ग़ज़ल  जैसे कटी इक और ये शब भी गुज़र गयी  ये और बात,ख्वाहिशे-ख्वाबे-सहर  गयी  ऐसी थी बेख़ुदी मेरे दर पर के  ज़िंदगी  आयी थी होशमंद मगर बेख़बर गयी  बेख़ुद हुआ जो शौक़ तो उभरे तेरे नुक़ूश वहशत मुसव्विरी को पशेमान  कर गयी  एक ग़म था जिसने मुझको सम्भाला है उम्रभर  इक थी ख़ुशी जो बरमला ग़ैरों के घर  गयी  नीयत के साफ़ होने की जब भी है दी दलील  मेरी नज़र मुझे ही पशेमान कर गयी     अब तीरगी में जा के खुला है ज़िया का राज़ जबके नज़र के साथ ही ताबे-नज़र  गयी   शाम आयी और मचलने लगे ये मेरे क़दम  तनहा चले जिधर भी मेरी रहगुज़र गयी  दिन अजनबी-सा मेरी बग़ल से गुज़र गया  रात आशना-सी मेरे मकाँ में ठहर गयी  महरूमियों से प्यार था,क़ुर्बत से इश्क़ भी इस कशमकश में उम्र मज़े से गुज़र गयी  'कुंदन' रहे हैं रुसवा  अगरचे तमाम उम्र  वो भी थी इक घड़ी के बड़ी मोतबर गयी  **************************  
18.08.1983  की एक नज़्म  एक सुबुक-सा एहसास  एक एहसास  फ़क़त एक सुबुक-सा एहसास  सीना-ए-वक़्त में यूं दौड़ता रहता है वो  जैसे सय्याल लहू लम्हों की रग-रग का हो  जैसे इक पाक-सी दोशीज़ा का शफ्फाफ़ ख़याल  जैसे इक ज़हने-मुरव्वत पे नदामत का मलाल जैसे ख़्वाबों की तरबगाहों में मासूम-सा ख्वाब  दरिया-ए-नूर के लब पर कोई चांदी-सा हुबाब  सर्द कुहरे से निकलती हुई रख्शां आहट एक बेवजह-सी,हल्की-सी नशीली दस्तक  स्याह रातों की खिजाँ पे कोई खिलता-सा कँवल  जैसे सन्नाटे की आवाज़ में तहलील ग़ज़ल  कितनी बेचैन लकीरों की मुलाक़ात न हो  एक तस्वीर की तकमील की सौग़ात न हो  या के तस्वीरे-जफ़ा फिर न बना जाए कोई  रंग की फिर से कोई तल्ख़ इनायात न हो -- गोशे-गुल में सबा चुपके से कह रही है अभी एक एहसास  फ़क़त एक सुबुक-सा एहसास  ****************************                  
 22.05.1986 की एक ग़ज़ल  दिल में और होठों पे रंजिश कितनी नई पुरानी  लाये  कितनी बार सुना था जिसको ये सब वही कहानी लाये दिल के  आँगन में ये  अपनी सौग़ातें सब छोड़   गए   कुछ होठों की ख़ुशबू लाये,कुछ आँखों का पानी लाये   एक अजब आलम है अब हम हँसते-हँसते रो देते हैं  तेरे उस आबाद नगर से हम खानावीरानी    लाये  आशाइश की फ़िक्र में हम निकले थे कब इक उम्र हुई  लौट के लम्हों को खोला है,एक अजब हैरानी लाये   ख़्वाबों में एक धुंधला चेहरा ,हर्फ़ों में पोशीदा फूल  सुलझी स्याही से लिखने हम इक मौहूम कहानी लाये  बंद हुई इक धड़कन दिल की ,ख़्वाब,तख़य्युल ख़ाक हुए  'कुंदन' के कमज़ोर-से शाने क्या-क्या बोझ गिरानी लाये   ******************************   
हमारी ये भूल है   समाज में स्थापित लोग रोल मॉडल की तरह काम करते हैं.वे इस क़दर अनुशासन में रहते हैं कि उनके आचरण के द्वारा समाज में मूल्य स्थापित होते रहते हैं .एक मूल्य गंभीरता का भी है.मैं गंभीरता   के इस सामाजिक प्रदर्शन पर बड़ा अगंभीर हो जाता हूँ. विशेषकर साहित्यिक मित्र बड़ी गरिष्ट ,बड़ी उलझी हुई बातें करते हैं .अगर आप ज़रा भी हल्के नज़र आये कि उनकी बिरादरी से बाहर .गाँव -देहात में जात से बार देते हैं .यह जातिच्युत होने का मामला है. और आदमी थोड़ा हल्का होना चाहता है.आम आदमी कितनी गंभीरता ओढ़े .आपने गाड़ी में सवार किसी अफसर का चेहरा या मंच पर बैठे हुए साहित्य -साधकों का चेहरा देखा है? गौर से देखिये.कितना तना हुआ,कितना गंभीर.और सारी बातें समाज में फैली हुई बुराईयों के विरुद्ध .हो सकता है उस वक़्त उनका  बाप मर रहा हो ,उनकी  बीवी ने सिनेमा जाने का प्रोग्राम बनाया हो या हो सकता है वे स्वयं तुरत ही किसी अवैध डेट पर जाने वाले हों.लेकिन इसका कोई रिफ्लेक्सन उनके चेहरे पर नहीं होगा.हाँ,अगर आप थोड़े स्वाभाविक हो गए कि उन्हें आपके हल्केपन का एहसास हो जाएगा और वे भविष्य के लिए आपको
ग़ज़ल   फ़रेब देना है कुछ , कुछ  फ़रेब खाना है मुझे तो दुश्मनो-अहबाब से निभाना  है एक ही तीर है और एक ही निशाना  है  गए जो चूक तो मेले से लौट जाना  है   तमाम  वादों  को पूरा  करे कोई  तुक  है  वो तो दरिया है है उसे सिर्फ बहते जाना है  अगर है जज्बों में शिद्दत तो क्यूं न हो रुसवा  ये क्या के फूंक कर हर इक क़दम बढ़ाना है   है  पशोपेश  के  शानों  पे एक  ही  सर  है  इधर ये हाल के हरदम ही सर कटाना है  मुक़ाबले  के  किसी  खेल  को चलो ढूँढें  यहाँ तो घोड़े पे गदहे का ताज़ियाना है  नहीं जो दिखता है उसपर यक़ीन है 'कुंदन' उसका अंदाज़ निहायत ही सूफ़ियाना  है   *******************************  
दहक  उठेगा ये गुलमोहर फिर  मैं जानता हूँ अभी नहीं है वो वक़्त  के हम फ़साना गढ़ लें  मैं जानता हूँ अभी न आया है  ऐसा मौसम  जो सर्दो-गर्म आज चल रहा है  जहाँ को उससे निजात दे  दें अभी तो दौर है वो  के शीर को भी तरसते बच्चों    को जब भी चाहा हलाक कर दें  अभी तो इन्सां छुपा हुआ है  अभी तो हैवाँ मचल रहा है  मैं जानता हूँ अभी नहीं है  वो वक़्त के हम  कुछ ऐसे दोपहर में  किसी शजर के ज़रा-सा साया  के मुन्तज़िर हों  दरख़्त सारे झुलस रहे हैं  हमारी ख्वाहिश पे कितने पहरे  हमारी हसरत पे बंदिशें हैं  यही है हुक्म हाकिमे-शह्र का  के इंसानियत की वुसअतों को  बस एक नुक्ते-भर की  जगह अता हो  जहाँ से राजा निकल रहा है  वहाँ पे है सरनिगूं  रियाया  वहाँ बनाई गयी हैं  देखो  कितनी हमवार-सी फज़ाएँ  वहाँ पे शोरे-ज़िंदाबाद हर सू  वहाँ पे ऐसे इन्कलाबों  के नारे कितने मचल रहे हैं  जिन्हें किसी ने कभी न देखा  के सारे अखबार,हरूफ़ उनके  के जितने भी कैमरे मयस्सर  सब इक जगह पे अटक गए हैं  मैं जानता हूँ अभी नहीं है  वो वक़्त के हम  ज़ु
26.12.1985 की एक नज़्म  अन्धेरा  आज फिर रात मेरे दिल में उतर आयी है  कितनी सदियों के अँधेरे को लिए दामन में  कोई सरगोशी,न आहट,न इशारा कोई  कितना वीरान है बुझते हुए एहसास का पल  फिर कोई ख़्वाब मरा,फिर कोई ख्वाहिश सिसकी  फिर मेरी शिद्दते-एहसास कोई ख़ार बनी   और नाज़ुक से किसी पाए-ताआलुक में चुभी  दिल की तारीकियों का अब कोई मशरिक़ भी नहीं  अब कोई सम्त है बाक़ी,न कोई राहगुज़र  कोई ताज़ा किरन अलसाई हुई जिसपे के चलकर आये  और अब सुब्ह की दोशीज़ा नहीं निकलेगी  और अगर निकली भी तो पाँव में घुँघरू होंगे  मसनुई होंगे तबस्सुम उसके  रस्म भर होगा थिरकना उसका  अभी हुई है मुकम्मिल वो साज़िशे-ज़ुल्मत  रात के सर्द ,अँधेरे से किसी कमरे में  चंद लम्हा हुए हैं  सुब्ह ने  दम तोड़ दिया  आज फिर रात मेरे दिल में उतर आयी है  *********************************
1o.12.1985 की एक ग़ज़ल  शाम की  राहों पे फैलीं  याद की  परछाइयां  शौक़ का बोझल बदन लेने लगा अंगराइयां   अब तलक सरशार थे हम महफिले-अहबाब में  शाम अब ढलने लगी,रोशन हुईं  तन्हाइयां  हम से आशुफ्तासरों का क़ाफिला सू-ए-हरम   फिर जुनूने-शौक़ की होंगी यहाँ रुस्वाइयां  ग़ैर शह्रों में मुझे ले जायेगी फ़िक्रे-मआश    दोस्तों ,याद आयेंगी अपनी ये बज़्मआराइयां  जो सतह पे तैरते रहते हैं उनको क्या पता  क्या है एहसासे-वफ़ा ,क्या इश्क की गहराइयां  ख़ुद को जिसपे साहिबे-महफ़िल समझ बैठे थे हम  वो सताइश तो फ़क़त थीं  हौसलाअफजाइयां    दिल धड़कता ही चला जाएगा 'कुंदन' बेसबब  वुस अते -सहरा हो या रात की पह्नाइयां  *******************************
ग़ज़ल  ज़िक्र मेरा  भी  आया  होगा , नहीं,नहीं, ये धोखा  था   लेकिन जो भी अफ़साना था मुझसे मिलता-जुलता था  हमने  लम्हे  के  पावों  से  इक  लम्बी  दूरी तय  की  लेकिन देख कहाँ ये पाए ,कहाँ-कहाँ पे  छाला  था  कितनी   तस्वीरें  हैं  देखी , कितने ख़त  उलटे-पलटे  कितने दरिया आ के मिले पर दिल का समंदर प्यासा था  क्या  कहते हो , उठ के चलें अब , छोड़ें  कारोबारे-जाँ  ख़त्म करें हम ये अफ़साना ,  हमनें ही तो छेड़ा  था   कुछ भी मुकम्मिल हो जाए तो उसकी लज़्ज़त जाती है  एक भी हसरत बर नहीं आई,तब ख़ुद को समझाया था  साहिल,दरिया,कश्ती ,मुसाफ़िर ,तूफाँ,मौजें और गिर्दाब  ये सब तो बस वह्मे-नज़र थे,  सारा समंदर  सूखा  था   इक नन्हें-से हाथ  ने छूकर  कैसे  उसको   रोक  लिया  वरना तेरी बज़्म में 'कुंदन'अब न   ठहरनेवाला    था   ***********************************
गॉल ब्लैडर का ऑपरेशन और सहानुभूति-रस  कल   मेरा   ऑपरेशन   है . चौंकने   की   ज़रुरत   नहीं   है  . गॉल   ब्लैडर   का    ऑपरेशन   है . मेरे   पेट   से   गॉल   ब्लैडर   को   निकाल   दिया   जाएगा  . मैंने   इस   सिलसिले   में   अपने   शुभचिंतकों   से   सहानुभूति   प्राप्त   करनी   चाही  . नहीं   मिली  . लोगों   ने   मुंह   बिचकाया  . बड़ा   मामूली  - सा   ऑपरेशन   है . जान - पहचान   के   कई   लोगों   ने   करवाया   है .सहानुभूति रस  का पान नहीं कर पाया.जब तक कुछ बड़ा नहीं हो आप कोई अटेंशन प्राप्त नहीं कर सकते . आप कलमाडी बन जाइए ,आप फूलन देवी बनिए ,आप बड़ा नर-संहार करवाइए ,आप ट्विन टावर के बीच में घुस जाइए ,आप मैच -फिक्सिंग कीजिये ,आप पेट्रोल की क़ीमत बढवा दीजिये,आप वेंटिलेटर यानी भीष्म की मृत्यु-शैय्या पर चले जाइए तो अटेंशन खींचियेगा.यह क्या हुआ कि एक टुच्चा -सा    गॉल   ब्लैडर   निकाल कर सबको यूँ दिखला रहे हैं जैसे वीरता का मेडल दिखला रहे हों .स्थानीय स्तर का गाँव के किसी बूढ़े-पुराने तथाकथित स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर कोई मासूम ,फूहड़  पुरस्कार  पाकर आप क्या   अटेंशन खींच स