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सितंबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
शहंशाहे-वक़्त का  शबिस्ताँ   ख़याल जा के कहाँ छुपे हैं  के जो भी जज्बे हैं मुन्तशिर हैं हवस सी इक जागती है दिल में  के नज़्म कोई क़लम पे उतरे  नहीं तो हौले क़दम ही आए वरक़ पे लफ़्ज़ों का नूर बिखरे  हो ख़ुशलिबासी का एक मंज़र  मगर अजब सा ये अलमिया है  के कुछ न नज़रों को दिख रहा है  हरेक सू है ख़मोशी शब् की  बहुत ही गहरा हुआ अंधेरा पता नहीं क्या उदासियाँ हैं  पता नहीं क्यों बुझा है ये दिल  के एक मुबहम सा कोई ख़ाका उफ़ुक पे दिल के उभर रहा है  के मुफ़लिसी ख़ुशलिबास  होकर  अंधेरी शब् में बहुत ही चुपके  शहंशाहे-वक़्त के शबिस्ताँ  में सरनिगूं  हो रही है दाख़िल ************