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सितंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
प्रतिभा वर्मा की एक कविता हथेलियों पर उड़ेले हुए सपने वही बचपन की कहानी चन्दा मामा की  चमकती चाँदी की थाली मुन्ने के पुए और मुन्नी की चमकती आँख दूर खड़ी मुन्नी थाली की पेंदी के अँधेरे में कुछ देखती है थाली की चमक के ठीक पीछे अँधेरा है उसमें कुछ सपने मुन्नी ने अनायास ही उगा लिए हैं छोटे-छोटे तारे सपनों के झिलमिल करते हैं मुन्नी तवे पर रोटी फुलाती है रोटी के गुम्बद में सपने घुस आते हैं मुन्नी को छेड़ते हैं गुदगुदाते हैं उसके हाथ को मुनी हँसती है सपने दौड़ेंगे उसकी चिकनी हथेली पर कभी कोई उस अँधेरे से उठाकर हाथों पर उड़ेल जाएगा समय गुज़रता है रोटी आज भी फूलती है फर्क बस इतना है कि सपने अब टिमटिमाते नहीं हथेलियाँ और सपने दोनों वक्त की रगड़ से खुरदरे और धुँधले हो गए हैं न जाने क्यों मुन्नी अब भी अँधेरे से धुँधले सपने उठाकर पोंछती है *****************  —
ग़ज़ल विरसे में कुछ मिला है,यहाँ फ़लसफ़ा कुछ और फ़रियाद मेरी और , तेरा क़हक़हा कुछ और हमको ये कह के कर दिया ख़ारिज जनाब ने तुम दिल की राह चलते हो, ये रास्ता कुछ और ये और बात माननी होगी ही उसकी बात अपना यक़ीं कुछ और है उसका कहा कुछ और देते हैं हुक्म पढ़ के हुकूमत की वो किताब  हमने पढ़ा कुछ और था इसमें लिखा कुछ और ठोकर भी खा के आजतक संभला नहीं ये शख्श  शक ही नहीं करने की ये इसकी अदा कुछ और सरमाया के शीशे में ही सब देखते हैं शक्ल हम सब को दिखाते हैं जो वो आईना कुछ और वो रंगो-बू  का दौर तो  'कुन्दन' गुज़र गया गुलशन का रंग लगता है तेरे बिना कुछ और ************************
मीर तक़ी मीर के चन्द अशआर जो मुझे बेहद पसंद हैं:--- सहल इस क़दर नहीं है मुश्किलपसंदी अपनी जो तुझको देखते हैं मुझको सराहते हैं * * * * * * ****** तुम्हे भी चाहिए है कुछ तो पास चाहत का  हम अपनी और से यूँ कब तलक निबाह करें ********* ************* ********* तू परी,शीशे से नाज़ुक है ,न कर दावा-ए-मेह्र दिल है पत्थर के उन्हों के जो वफ़ा करते हैं ********* ************** *********** मज़हब से मेरे क्या तुझे,तेरा दयार और मैं और,यार और,मेरा कारो-बार और ********* ********** ******** जौरे-दिलबर से क्या हों आज़ुर्दा 'मीर' इस चार दिन के जीने पर ******* ********* ******* दिल वो नगर नहीं ,कि फिर आबाद हो सके पछताओगे ,सुनो हो ,ये बस्ती उजाड़ के ************* ************* *********** मीर साहब ज़माना नाज़ुक है दोनों हाथों से थामिए दस्तार ******** ************ मीर साहब भी उसके ही थे ,लेक बंदा-ए-ज़र-ख़रीद के मानिंद ********* ********* ********** बेकली ,बेख़ुदी कुछ आज नहीं एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं ********* ***** ********** न मिल मीर ,अबके अमीरों से तू हुए हैं फ़क़ीर ,उनकी दौलत से तू *********