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जनवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
ग़ज़ल  यारब मेरी ग़ज़ल को कुछ इतना ही दिलफ़रेब कर  बज़्मे-सुख़न में शायरी ख़ुद आफ़रीन कह उठे   कुछ मेरे शौक़े-दीद में ऐसा ही हुस्न कर अता  तुझसे नज़र मिला ही लूं पर्दानशीन  कह उठे   अपना यक़ीन था फ़क़त वहमो-गुमाँ की इन्तहा  हैरत है हम मकान को कैसे मकीन  कह उठे  तेरे क़दीम ज़ख़्म को यादों से यूँ रखा है तर  सुनकर पुरानी नज़्म वो ताज़ातरीन कह उठे  महफ़िल का शोर अब तलक कानों में क्यूँ है गूँजता  होकर के हम जहान से गोशानशीन कह उठे  तेरा ख़याल ,तेरा ग़म ,मेरी नज़र ,मेरा जुनूँ  मिल जो गए तो शाम को बरबस हसीन कह उठे  'कुंदन' क़बूल कर लिया अपने ज़हन को पस्त जब  बज़्मे-जहाँ में सब-के-सब हमको ज़हीन कह उठे  *************************
ग़ज़ल  कोई झगड़ा है   , न रंजिश ,न सरगिरानी है  पर अदावत तेरी तहज़ीब भी पुरानी  है  एक क़िस्सा है जो पानी के वरक़ पे लिक्खा  लोग फिर कितने हैं आँखों में जिनके पानी है  कुछ मेरे सच हैं जिन्हें काश वो झुठला देता  वो जिसका पेशा ही सदियों से हक़बयानी है  कोई तो है जो मेरी पीठ पे हमेशा है  मैं जो अव्वल हूँ मेरा भी तो कोई सानी है वो कौन आँख है हर लम्हा घूरती है मुझे  ये कैसा लम्हा है हर वक़्त इम्तहानी है  ये एक ख़दशा,ग़रीबी है इश्क़ है क्या है  के जिसकी दिल पे हमेशा से हुक्मरानी है   उसे बुला तो लिया है कहाँ वो ठहरेगा  न जाने कैसी ये 'कुंदन' की मेज़बानी है  ***********************
ग़ज़ल  ख़ुद से ख़फ़ा हूँ,तुझसे तो बरहम नहीं हूँ मैं  हूँ पास तेरे ,तुझमें मगर ज़म  नहीं हूँ मैं  हालात के क़दमों पे अभी ख़म नहीं हूँ मैं  ये और बात शौक़े-मुजस्सम  नहीं हूँ मैं   तुझसे भी है सुख़न मुझे,दिल से भी गुफ़्तगू  वो कह रहा हूँ जिसपे के क़ायम नहीं हूँ मैं  उड़ता हूँ गरचे मैं भी हवाओं के ज़ोर से  मैं दिल की ख़ाक हूँ,कोई परचम नहीं हूँ मैं  किस तरह मेरे अश्क तेरी आँख में झलके  लब हँस रहे हैं,दीद-ए-पुरनम नहीं हूँ मैं     लौट आऊँ कैसे अपनी मुसर्रत के बाग़ में  इक गुल हूँ निकाला हुआ,मौसम नहीं हूँ मैं  मुज़्तर हुआ तो बख़शी है दुनिया को ताजगी  खुशबू से अपनी ज़ात में कुछ कम नहीं हूँ मैं  'कुंदन' हलाक कैसे करेगी मुझे ये धूप  आँखों में नक़श ख़्वाब  हूँ,शबनम नहीं हूँ मैं  ****************
ग़ज़ल  माल-असबाब पे खड़ा है क्या  आदमी वो कोई  बड़ा  है क्या  ज़िंदा रहने की इक हवस भर है  वरना जीने में कुछ बचा है क्या  पेश्तर इसके कुछ सवाल हैं और  तुमने पूछा जो ढूंढ़ता है क्या आज भी रात भर है ख़्वाब की गश्त  आज भी कोई  रतजगा है क्या   ज़हन की लाख नाकाबंदी  हो  दिल कभी हाथ में रहा है क्या  जिसकी ताबीर न हो ख़्वाब वही  कहनेवाला ये सरफिरा है क्या  ये है शिद्दत की बात ऐ 'कुंदन' वरना क़ुर्बत है,फ़ासला है क्या  ***************
ग़ज़ल  मुझमें रहकर मुझको तो आबाद कर जाओगे तुम  ख़ुद को खोने का मगर इक लुत्फ़-सा पाओगे  तुम   एक दिन इस भीड़ में चेहरों की खो जाऊँगा   मैं  कुछ थके-हारे -से तनहा शाम घर जाओगे  तुम  है बिछड़ने का ये आलम मौसमों  के दरम्याँ  ख़ुश्क लब  पे ख़ुन्क-सा इक ज़ायक़ा पाओगे तुम    ज़िंदगी की ज़र्ब से जब चूर  होगा हर गुमाँ  सबसे ज़्यादा अपनी हस्ती से ही कतराओगे  तुम  पर कतर कर अब फ़रिश्ते आ गए बाज़ार  में  मुतमइन होकर ज़मीर अब अपना तुलवाओगे तुम  इन ग़मों की मय से अब बिलकुल नशा आता नहीं  अब सुरूरे-ज़िंदगी ,साँपों से डसवाओगे  तुम  आज लफ़्ज़ों में सिमट कर हर सदा गूँगी  हुई  और 'कुंदन' कब तलक चीखोगे-चिल्लाओगे तुम  ************** 
ग़ज़ल  उचटी हुई बस एक नज़र और कुछ नहीं  तनहाइयों की राहगुज़र और कुछ नहीं  दिन भर की जुस्तजू का सिला सिर्फ़ तीरगी  उम्मीद की किरन का सफ़र और कुछ नहीं  मुब्हम से कुछ यक़ीन हैं,धुँधले से कुछ शकूक  इससे ज़ियादा अहले-नज़र और कुछ नहीं  इक चाय की दुकान पे क़ुर्बत ज़रा सी देर  इस दौर में ख़ुलूसे-बशर और कुछ नहीं   दरवाज़ा खुला,बैठे ,ज़रा चाय भी पी ली  'कुंदन' की दस्तकों का असर और कुछ नहीं   ***********************
ग़ज़ल  ये कैसा दौर आ गया जगानेवाले  सो गए  जो शायरे-कमाल थे वो सामईन  हो गए  ये बात तयशुदा ही थी के मंजिलें रहेंगी गुम  अजीब इत्तफ़ाक़ है के रास्ते भी खो गए  ये दास्ताने-शौक़ है इसे तो लिख सके वही  के ख़ुद ही अपने ख़ून में जो ऊँगलियाँ डुबो गए  जो अपने-अपने शानों पे उठा के ख़्वाब चल पड़े  कहानियों के लोग थे ,कहानियों में खो गए  भला किसे मैं दोष दूँ के सोहबतों से दूर हूँ  वो कारोबारी लोग थे जो मुझसे दूर हो गए  जो नन्हें-नन्हें पाँवों के निशान दिल पे नक़्श थे  के चूर आईना हुआ वो सब नुक़ूश खो  गए  गली-गली भटक लिए ,सदायें भी लगा ही लीं  के बेनियाज़ हो गए तो 'कुंदन' आज सो गए  *******************