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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
ग़ज़ल कुछ  तो मासूमियत ,जवानी कुछ  बात  लगती  है  ये पुरानी    कुछ है ज़बरदस्त इक कशिश  इसमें  माना दुनिया है आनी-जानी कुछ  हाकिमे-शह्र,  तू   ख़ुदा  तो  नहीं     सोच, तेरा  भी  होगा  सानी  कुछ   आपकी बज़्म तो  संजीदा   है  रुसवा करती  है शादमानी कुछ  इस क़दर क्यूं ठहर गया है वक़्त  देख  ,लम्हे में है  रवानी  कुछ   आज का खून कल ज़िया देगा  गरचे तुम लोगे ज़िन्दगानी  कुछ  जब भी पूछा है  हाल ऐ 'कुंदन' छेड़ देते हो तुम   कहानी   कुछ  **********************
ग़ज़ल आया ज़रा सुकून में चौंका दिया मुझे  मुझसे न पूछ ज़िंदगी ने क्या दिया मुझे इक दिलफ़रेब साया था इक लम्हे की ख़ातिर गरचे इक उम्र के लिए भरमा दिया मुझे    बेशर्मियों के बीच भी जीना है एक फ़न हर बार ख़ता उसने की ,शरमा दिया मुझे  कितने सबूत ले के  गया था मैं उसके पास  फिर से अमीरे-शह्र ने समझा दिया मुझे  करवाया गया नारसाइयों का मुझे मश्क़ ऐसा भी हो किनारे पे पहुंचा दिया मुझे  इक रोशनी हुई थी जो टूटा तिलिस्मे-ज़ात  गुमनामियों ने फिर कोई रूतबा दिया मुझे  जो था शजर ख़ुद आंच में अपनी था जल रहा  'कुंदन' कहा ये सबने के साया दिया   मुझे  *********************
ग़ज़ल     सहरा  में गूंजती  हुई  बेनाम  सदा हूँ  पत्थर की तरह वक़्त के सीने पे जमा हूँ  अब पास हिफ़ाज़त के लिए कुछ भी नहीं है  जंगल में ख्वाहिशात  के मैं खौफ़ज़दा  हूँ  मिट्टी हूँ तो ढल जाना है पैकर में मुझे भी  आज़ाद तमन्ना लिए हैरान खड़ा  हूँ   लम्हाब लम्हा  मुझसे ही फिसला मेरा वजूद हर शख्श से अब अपना पता पूछता हूँ मैं  हर बार यही लगता है ये इब्तदा ही है  गरचे हुई इक उम्र के मैं घर से चला हूँ   ऐ ज़िंदगी ,चर्चे में रही तेरी सख़ावत इक मैं के तेरे दर पे तो बेवजह  पड़ा हूँ  'कुंदन'कभी आती थी ख़मोशी की सदा इक  अब शोर है वो बात कोई सुन न रहा हूँ      **************************
ग़ज़ल  मकाँ में रह के अजब-सी ये लामकानी है  उतर  सकी न वरक पे वही  कहानी   है    मैं आस-पास के लोगों -सा हो नहीं सकता  अभी भी आँख में लगता है कुछ तो पानी है  तेरे गुलाब-से होठों पे पत्थरों का  अक्स  मेरे पत्थर -से बदन में कोई रवानी   है  अपनी खुशियाँ समेत लूं ये जल्दबाजी है  सांवली शाम ने जाने की ज़िद जो ठानी है  चंद एहसास हैं लफ़्ज़ों के जो मोहताज नहीं  चंद अल्फ़ाज़ से जज़्बों की सरगिरानी है    हमारी ख़ुशियों पे तक़दीर के  कड़े  पहरे  हमारे पास फ़क़त एक बेज़ुबानी   है    अपने बिखराव को हर लम्हा चूमता 'कुंदन' ये इन्तशार  किसी शख्श की निशानी है  **********************************
ग़ज़ल  तुम ठहरते ही नहीं सिर्फ़ आते-जाते हो  दोस्ती का भी भरम खूब तुम निभाते हो तुम्हारा दम तो मेरी हस्ती से ही घुटता है  ख़ामख्वाह सिगरेट पे इलज़ाम क्यों लगाते हो  जब थमी-सी हो हवा बर्ग-सा लरज़ते हो  जब हो आंधी तो कोई संग नज़र आते हो  तुम्हारा एक  ही   चेहरा ,हमारे  रंग   कई  फिर भी तुम कितने ही चेहरों में झिलमिलाते हो   इन दिनों एक ग़ज़ल भी नहीं हूँ कह पाया  बताओ ,खंज़रे-तिश्ना   कहाँ छुपाते हो हम अपने साथ ही लाये थे याद कुछ ,ऐ शह्र सुकूँ से जाने दो ,दुनिया को क्यों दिखाते हो गुलमोहर है जवाँ हर शाख पे देखा ,'कुंदन' यही है राज़ खुशी का तो क्यों छुपाते हो *********************************       
ग़ज़ल    सुना,हवा के ज़ीने से वो माहताब उतर गया  अगर ये मोजज़ा ही था तो दिल में रंग भर गया उदासियों के दौर में जवाँ थीं मुस्कराहटें जो दौरे -क़हक़हा चला तो मुझको तल्ख़ कर गया वो सादा-सादा मंज़रों में रंग भरनेवाला था  सुना है,ख़ुशबुओं- सा वो गली-गली बिखर गया वो खुद में जज़्ब इस क़दर के रंग पत्तियों में जज़्ब  वो होशमंद बज़्म से ख़ुशी से बेख़बर गया मुझे ज़रा-सी बात का गिला रहा था उम्रभर तमाम मेरी ग़लतियाँ वो भूलता गुज़र गया परी कोई हो नन्हीं -सी सफ़ेद-से लिबास में  ये लम्स ताज़ा सुब्ह का असर कुछ ऐसा कर गया उतारा एक पैरहन तो ग़मज़दा हुए सभी  के 'कुंदन'आज भी तो है, वो कह रहे हैं मर गया ******************
ग़ज़ल  सोना  नहीं  है  इंतज़ार  कर  के   ढले    रात  ख़्वाबों की तिश्नगी से हर इक लम्हा जले रात     आलम गुनूद्गी  का    लगाए     भले  ही   घात आँखों को दस्ते- याद से हर वक़्त  मले   रात   उन चंद-सी  आँखों पे है क़ायम   वक़ारे-शब जिन जागती आँखों का लहू पी के पले   रात होकर जवाँ   बेदारी-एशब   ऐसे लहक जाय गुलमुहर की मानिंद अंधेरों में खिले  रात  इन मखमली अंधेरों  में पोशीदा कोई चुप  जैसे के रात से ही ख़मोशी  से मिले रात  बेनाम से जज़्बों  की हवा आये  दफ़तन  दरवाज़ा खुले और वो परदों सी हिले रात  आने को जो है सुब्ह तो बेकल है  रात  भी  तनहा न चले ,साथ हो "कुंदन"तो चले रात *****************************************               
ग़ज़ल    ख़्वाबों की मंजिल पे आकर मंजिल के कुछ ख्वाब दिखाए  हर लम्हा  जीने की  ख़ातिर हमने  क्या-क्या  ढोंग  रचाए देखो ,देखो गुलमोहर के  फूल शजर  पे फिर  खिल आये  दामन भी फिर हमने  फाड़ा ,फिर आसार जुनूँ  के   लाये हम तो मुसाफिर थे अपनी तो क़िस्मत थी चलते  जाना  इक लम्हा छाँव में रहकर हमने क्या-क्या  रोग लगाए  तुम राजा हो ,हम हैं भिखारी ,तुम सुल्ताँ हो,हम मज़लूम, जो किरदार मिला है जिसको डाल के  अपनी रूह निभाये  तुम ताजिर हो या जादूगर इसको परखना खेल नहीं है  घर के अन्दर छुप के फंसे हम ,बाहर तुमने जाल बिछाए  जिस्म की गर्मी,सांस की ख़ुशबू,होंठ की ढंडक ,ज़ुल्फ की छांव  सहरा में दरिया  के भरम  में कोई अपनी  जान लुटाए    किस नगरी में  कहाँ से आकर  खोली है दूकां  अपनी  वैसे "कुंदन" बेफ़िक्रा है ,गाहक आये या ना आये   *******************************************     ...

गजल

कौन तन्हाई में आता है कहाँ आता   है सब तो अपने हैं  मगर ये भी कैसा रिश्ता है   बोलता हूँ मगर मुझ जैसा गूंग   कोई नहीं  जानता  हूं कि यहाँ कौन किसकी सुनता है   उसे गुमाँ  है कि इक भीड़   साथ चलती है मुझे यक़ी है कि जो भी सफ़र  है ,तन्हा है   सुब्ह   की चाय  में क्या जाने कितनी यादे हैं शाम कि राह में कितने क़दम का मजमा   है   वो जिनकी आँखों में पानी नहीं है क्या देखें   वो कह रहे है यहाँ दूर तलक सहरा है   जिस्म कहता है ये खत्मे -सफ़र   है रुक जाएँ   रूह कहती है बहुत दूर अभी चलना  है   बस उसी लम्हे  को 'कुंदन' ने उम्र भर ढूँढा...

ग़ज़ल

दिले  - सादा   से   भला   चाल   चल   रहा  है  कौन हरेक    लम्हा   ये   सूरत    बदल    रहा    है   कौन   कोई    तो    है   जिसे    लगता   है  मैं  बाहर लाऊं  पता   नहीं,   मेरे   अन्दर   ये    पल  रहा है कौन   मैं   पिछली  शब्   तो  बरा   फूट- फूट  कर रोया  एक   बच्चे   की   तरह   ये  मचल रहा है कौन   मैं देर   रात   का   सोया   सहर  भी   क्या  देखूं ये  आफ़ताब- सा दिल में निकल रहा है कौन   वो ख़ासो- आम का मतलब बहुत समझता था उसे   ज़मी   की  तरफ   लेके   चल   रहा...

लेकिन इन पत्थरों के पीछे से..............

इन दिनों मैं तो चटानो की ही तामीर किया करता हूँ पत्थरों को ही जमा करता हूँ जहाँ हल्की सी भी दिखती है दरार एक पत्थर को लगा देता हूँ उससे भी  मुतमईन दिल होता नहीं है शायद और लगा देता हूँ कितने पत्थर   कान को बंद मैं करने की हूँ करता कोशिश शल किया करता हूँ हर लम्हा समाअत  अपनी सुन न पाऊं कोई हल्की भी सदा .   लेकिन इन पत्थरों के पीछे से हल्की-हल्की हवा सी आती है चीख सी इक दबी- दबी कोई रात के पिछले पहर पिछली कितनी शबो के अफसाने गुजरे लम्हों की एक महक़ के तले याद की एक दबी-दबी सी सदा हाँ,इन्ही मुन्जमिद चटानो से जैसे छन-छन के आती रहती है   कब तलक उनसे फेर लूँ नजरे कब तलक कान अपने बंद करूँ क्या कई  हाथ में फिर हैं पत्थर दिल के सहरा में क्या फिर से कोई मजनू आने  को है दीवानावार   #################     

मुझे बिलकुल पता है ....

मुझे बिलकुल पता है के ये सारी क़वायद शायरी को जन्म दे सकती नहीं  ये सब तो बस मशीनी दौर के कुछ मसनुई सामान हैं जिनसे भरम हो सकता है सकाफ़त और अदब की राहों पे  क़ुमक़ुम सजाने का   मगर ऐसे हों क़ुमक़ुम के जिनसे ऐसी कोई रोशनी शायद ही निकले जो रूहों को ज़िया दे जो रोशन कर दे सदियों के दिमाग़ों को जो शायद रोक ले उस हाथ को जो बस करने ही वाला क़त्ल हो किसी मासूम बच्चे का  जो पैदा कर दे जज़्बा किसी नंगे ठिठुरते जिस्म पे इक   गर्म-सी चादर को रखने का मुझे बिलकुल पता है   के कितनी सदियों के शफ्फाफ़ जज्बों का  शीरीं खून पीकर  किसी इक ग़ार में सदियों से बैठे  वली की तरह कोई  किसी इक वज्द के  आलम में...