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ये आज का सफ़र तो ...
शायद सफ़र की शाम में उतरेगी एक नज़्म
तनहा सफ़र में जैसे कोई राह-रौ मिले
कुछ बातें जो दिल में रहीं कहीं भी न कह सका
उन लफ़्ज़ को तो शर्फे-समाअत ज़रा मिले
इस आज के सफ़र की तो हर बात है मालूम
क्या इब्तदा थी और कहाँ ख्त्मेसफ़र है
हाँ ,लग रहे हैं पेड़ ये ,ये खेत ,ये राहें
कुछ अजनबी -सी फिर भी ये अनजान तो नहीं
बेवजह इन्तशार के सामान तो नहीं
लेकिन इसी सफ़र के जो अन्दर सफ़र है इक
चलना है जिसपे इस सफ़र के बाद भी मुझको
वो किस क़दर अनजान है,कितना वो ग़ैर है
जिसमें हरेक लम्हे के अन्दर हैं कितने राज़
जिसमें न रहगुज़ार का कोई सिरा मिले
जिसमें न मंज़िलों का कोई भी पता चले
जिसमें न कोई रख्तेसफ़र और न हमसफ़र
सामानेसफ़र जिसमें तो लाग़र बदन ही है
हाँ,वो बदन के जिसमें हैं बेचैनियाँ भरी
लम्हा वो होगा सोचता हूँ किस क़दर मुहीब
कितनी कठिन-सी होगी वो जर्राहते -लम्हा
लाग़र बदन से जबके जुदा होगा इन्तशार
और इक सफ़र जो होगा कभी जिस्म के सिवा
बेचैनियों को साथ लिए चलना ही होगा
जिसमें न होगा मंज़िलों का कोई भी सुराग
जिसमें वजूदे -वक़्त भी मिट जाएगा आखिर
शायद वही सफ़र तो है सदियों से मुन्तजिर
ये आज का सफ़र तो फ़क़त इक नकीब है
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